हेल्लो दोस्तों भारतीय संविधान (Indian Polity) के श्रृंखला के क्रम में हम आज इस आर्टिकल Fundamental Rights, 6 Fundamental Rights, List Of Fundamental Rights | मौलिक अधिकार किसे कहते हैं? मौलिक अधिकार कितने है? मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण के माध्यम से भारतीय संविधान के अंतर्गत मूल अधिकारों के बारे में अध्ययन करेंगे।
प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे UPSC,UPPSC,UPPSC RO/ARO,UPPSC-PET,UPSI,UP LEKHPAL,UPTET तथा साथ ही साथ अन्य विविध राज्यों के लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा के दृष्टिकोण से यह टॉपिक काफी महत्वपूर्ण हो जाता है तो आइये इस आर्टिकल को पढने की शुरुआत करते हैं।
Fundamental Rights |
Fundamental Rights With Articles(Fundamental Rights Of India) | How Many Fundamental Rights Of India?
मूल अधिकार (Fundamental Rights):-
भारतीय संविधान के भाग 3 के अंतर्गत अनुच्छेद 12 से 35 तक मूल अधिकार का उल्लेख किया गया है। मूल अधिकार को भारतीय संविधान में शामिल करने का प्रावधान वर्ष 1928 में नेहरू रिपोर्ट(Nehru Report) द्वारा किया गया था। ये संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.) के संविधान से लिए गए हैं। भारतीय संविधान के अंतर्गत मूल अधिकारों का प्रारूप जवाहर लाल नेहरू ने दिया था। मूल अधिकार को भारत का मैग्नाकार्टा/अधिकारपत्र (Magna Carta) कहते हैं क्योंकि मूल अधिकार हमेशा उचित और प्रासंगिक है।
ध्यातव्य है कि भारतीय संविधान के अंतर्गत मूल अधिकार का विवरण जिस व्यापक और विस्तृत रूप में वर्णित है,दुनिया/विश्व के किसी और संविधान में ऐसा नहीं है। भले ही हमने संयुक्त राज्य अमेरिका से मूल अधिकार का प्रावधान ग्रहण किया है पर उसमें भी मूल अधिकार को लेकर इतनी विस्तृतता और व्यापकता नहीं है।
भारतीय संविधान में मूल अधिकार हर व्यक्ति के प्रति अधिकारों की गारंटी देता है और प्रत्येक व्यक्ति हेतु सम्मान,समानता ,निजता ,राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाये रखने वाले मूल्यों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करती है।
भारतीय संविधान का मूल अधिकार राजनैतिक लोकतंत्र के आदर्शों और मूल्यों की अभिवृद्धि और प्रोत्साहन करता है।मूल अधिकार राज्य द्वारा की गयी तानाशाही को रोकता है और नागरिकों के प्रति राज्य के कठोर नियमों को नियंत्रित करता है। वास्तव में मूल अधिकार का उद्देश्य देश में कानून की सरकार(Rule Of The Law) बनाना है और व्यक्तियों की सरकार बनने से रोकना है।
मूल अधिकारों को भारतीय संविधान द्वारा गारंटी और सुरक्षा प्रदान किया गया है। यह देश में लागू समस्त कानूनों का मूल सिद्धांत है। इसको मूल की संज्ञा इसलिए दी गयी है क्योंकि यह व्यक्तियों के नैतिक,बौद्धिक,आध्यात्मिक और भौतिक विकास को सुनिश्चित करता है।
मूल अधिकारों की विशेषताएं (Characteristics Of Fundamental Rights):-
- मूल अधिकार स्थायी नहीं हैं अर्थात विधायिका इसमें वृद्धि और कमी दोनों कर सकती है। यह प्रावधान संविधान संशोधन अधिनियम के अंतर्गत ही संभव होता है। इसके अंतर्गत विधायिका विशेष बहुमत के माध्यम से संविधान में संशोधन करती है। विधायिका यह संशोधन संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन किये बगैर ही कर सकती है।
- मूल अधिकारों में अधिकतर अधिकार स्वय से प्रवर्तित हैं जबकि अन्य अधिकारों को विधायिका द्वारा निर्मित क़ानून के द्वारा क्रियान्वित किया जाता है।
- मूल अधिकारों में अधिकतर अधिकार भारतीय नागरिकों हेतु उपलब्ध है साथ ही साथ कुछ अधिकार विदेशियों को भी प्राप्त है।
- मूल अधिकार प्रकृति में न्यायोचित हैं अर्थात इनका उल्लंघन होने पर यह व्यक्तियों को न्यायालय जाने हेतु अनुमति देता है।
- कुछ एकाध मामले को छोड़कर बाकी स्थिति में मूल अधिकार राज्य के तानाशाही/मनमाने क्रियाकलापों के विरुद्ध ही होता है।
- मूल अधिकारों को माननीय उच्चतम न्यायालय सुरक्षा और बेहतरी से क्रियान्वित करने की गारंटी प्रदान करता है। अर्थात किसी भी व्यक्ति के अधिकारों के हनन की स्थिति में व्यक्ति उच्च न्यायालय जाए बिना सीधे उच्चतम न्यायालय जा सकता है।
- मूल अधिकारों का क्रियान्वयन सैनिक शासन की स्थिति में रोका जा सकता है। यह शासन असामान्य परिस्थिति में ही लगाया जाता है। ध्यातव्य है कि यह राष्ट्रीय आपातकाल से अलग होता है।
- राष्ट्रीय आपातकाल के लागू होने पर मूल अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है (अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मूल अधिकारों को छोड़कर)। अनुच्छेद 19 के अधिकारों को युद्ध तथा विदेशी हमले की स्थिति में निलंबित किया जा सकता है।
- मूल अधिकार नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के होते हैं उदाहरण के लिए व्यक्तियों/नागरिकों हेतु विशेष उपबंध सकारात्मक और राज्य के प्राधिकार को नियंत्रित करने हेतु उपबंध नकारात्मक होते हैं।
- मूल अधिकार असीमित नही होते हैं अर्थात राज्य उन पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध और नियंत्रण लगा सकता है।
मूल अधिकार के प्रकार (Types Of Fundamental Rights):-
भारतीय संविधान के निर्मित होने पर मूल रूप से भारतीय संविधान में 7 मूल अधिकारों का समावेश किया गया था जो कि संविधान के भाग 3 (section 3) के अंतर्गत अनुच्छेद 12 से 35(Article 12 To 35) तक में निहित है-
2) स्वतंत्रता का अधिकार (Rights to Freedom):- यह अधिकार अनुच्छेद (Article 19 to 22) 19 से 22 तक है।
3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (Rights Against Exploitation):- यह अधिकार अनुच्छेद (Article 23 to 24) 23 से 24 तक है।
4) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Rights to Freedom of Religion):- यह अधिकार अनुच्छेद (Article 25 to 28) 25 से 28 तक है।
5) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (Educational and Cultural Rights):- यह अधिकार अनुच्छेद (Article 29 to 30) 29-30 तक है।
6) संपत्ति का अधिकार (Rights to Property):- यह अधिकार अनुच्छेद 31 में उल्लिखित है।
7) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies):- यह अधिकार अनुच्छेद 32 में उल्लिखित है।
हालंकि संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम 1978 (44th Amendments 1978) के द्वारा संपत्ति के अधिकार(Rights To Property) को मूल अधिकार की श्रेणी से हटा दिया गया। इसे अनुच्छेद 300(क ) (Article 300 A) के अंतर्गत (भाग 12) कानूनी अधिकार(Legal Rights) का दर्जा दिया गया। अर्थात अब भारतीय संविधान में 6 मूल अधिकार ही हैं।
समता का अधिकार (Rights to Equality)
इसके तहत राज्य सभी व्यक्तियों के लिए समान कानून बनाएगा तथा उन पर समानता से लागू करेगा किसी भी इंडिविजुअल को विशेषाधिकार अथवा सुविधाएँ नहीं दी जाएँगी। यहाँ व्यक्ति शब्द का आशय वैधानिक निगम,पंजीकृत समिति, कंपनी तथा अन्य कोई विधिक व्यक्ति शामिल है।
विधि के समक्ष समता का विचार ब्रिटिश संविधान से आहरित किया गया है तथा विधियों का समान सरंक्षण का विचार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से आहरित किया गया है।
- अनुच्छेद-361 के अंतर्गत राष्ट्रपति व राज्यपाल को प्राप्त विशेषाधिकार।
- संसद या उससे सम्बन्धी समिति का कोई सदस्य संसद में कही गयी किसी भी बात के प्रति न्यायालय में जवाबदेह नही होगा।
- अनुच्छेद 31 (ग), अनुच्छेद 14 का अपवाद है।
- संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसकी समस्त एजेंसी भी इससे बाहर आती हैं।
- विदेशी शासक,राजदूत दीवानी और फौजदारी मामलों से पूर्णतया बाहर होंगे।
केवल धर्म, जाति, मूलवंश/नस्ल, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया जायेगा। इसमें दो शब्दों 'विभेद' और 'केवल' का मुख्य रूप से उल्लेख किया गया है। विभेद का आशय किसी के विरुद्ध विपरीत मामला का होना है और केवल शब्द का अभिप्राय है कि नागरिकों के साथ अन्य आधारों पर विभेद किया जा सकता है।
- राज्य बच्चों और महिलाओं हेतु विशेष व्यवस्था और सुविधा दे सकता है जैसे महिलाओं हेतु पंचायतों में आरक्षण और बच्चों हेतु निशुल्क शिक्षा व्यवस्था।
- राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों अथवा अनुसूचित जाति तथा जनजाति हेतु विशेष उपबंध कर सकता है।
राज्य के अंतर्गत आने वाले समस्त नौकरियों व पदों पर नियुक्ति व नियोजन हेतु सभी नागरिकों को समान रूप से अवसर प्रदान किये जायेंगे। अर्थात नौकरियों में आरक्षण इसी अनुच्छेद के आधार पर दिया जाता है।
यह अनुच्छेद अस्पृश्यता को समाप्त करने तथा साथ ही इसके आचरण करने पर प्रतिबंध लगाता है। यद्यपि अस्पृश्यता को संविधान में परिभाषित नही किया गया है और न ही किसी अधिनियम ने भी इसको परिभाषित किया है। 1976 का अस्पृश्यता अपराध अधिनियम इसके हेतु दंड का प्रावधान करता है जो भी व्यक्ति इसके अंतर्गत दोषी पाया जाता है वह संसद और राज्य विधानमंडल के चुनाव हेतु अयोग्य माना जाता है।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने इसके संबंध में कहा है कि राज्य का संवैधानिक कर्तव्य और निजी व्यक्ति का दायित्व होगा कि इस तरह के किसी भी कृत्य को रोके।
यह अनुच्छेद नागरिक को प्राप्त उपाधियों को खत्म करने की वकालत करता है। इस संबंध में उपबंध निम्नवत हैं-
- राज्य केवल सेना अथवा विद्या सम्बन्धी सम्मान/उपाधि ही देगा।
- भारत का कोई नागरिक विदेश के राज्य से कोई सम्मान/उपाधि नही लेगा।
- राज्य के अंतर्गत सेवा के अधीन किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति के अनुमति के बिना विदेशी सम्मान नही लेना होगा।
इस अनुच्छेद में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि राज बहादुर,राय बहादुर,राजा साहब आदि जैसे उपाधियों को निषिद्ध किया जाए क्योंकि ये समानता के अधिकार का उल्लंघन है।1996 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने पद्म विभूषण,पद्म भूषन और पद्म श्री जैसे उपाधि को संवैधानिक रूप से मान्यता प्रदान की। हालांकि यह भी निर्णय किया गया कि इस पुरस्कार को पाने वाला व्यक्ति अपने नाम के आगे अथवा पीछे इस सम्मान को नहीं लगाएगा।
स्वतंत्रता का अधिकार (Rights to Freedom):-
इस अनुच्छेद को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का अनुच्छेद भी कहा जाता है। मूल संविधान में 7 प्रकार के स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है परन्तु 44वें संविधान संशोधन 1978 के द्वारा अनुच्छेद 19 (f) के अंतर्गत संपत्ति के अधिकार को हटा दिया गया अत: अब 44वें संशोधन अधिनयम 1978 के बाद अब 6 अधिकार ही रह गए हैं।
मूल संविधान में वाक् स्वातंत्र्य सम्बन्धी 7 अधिकार थे-
अनुच्छेद 19 (a)- प्रेस की स्वतंत्रता, व्यावसायिक विज्ञापन,बोलने का अधिकार, प्रदर्शन व विरोध का अधिकार(हड़ताल का अधिकार नहीं), फोन टैपिंग के विरुद्द्ध अधिकार, शान्ति का अधिकार अदि।
अनुच्छेद 19 (b)- सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार एवं प्रदर्शन (बिना हथियार के)।
अनुच्छेद 19 (c)- संगम/संघ/सहकारी समिति बनाने की स्वतंत्रता। भारत में राजनीतिक दलों का गठन इसी आधार पर होता है।
अनुच्छेद 19 (d)- भारत के राज्यों के क्षेत्र में निर्बाध रूप से घूमने की स्वतंत्रता (यद्यपि इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबन्ध लगाने के दो वैध कारण हैं आम जन का हित और किसी अनुसूचित जनजाति की सुरक्षा और हित)।
अनुच्छेद 19 (e)- भारतीय राज्य क्षेत्र के अंतर्गत में कहीं भी बसने/रहने की स्वतंत्रता (यद्यपि इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबन्ध लगाने के दो वैध कारण हैं आम जन का हित और किसी अनुसूचित जनजाति की सुरक्षा और हित)।
अनुच्छेद 19 (g)-आजीविका/व्यवसाय चलाने हेतु स्वतंत्रता। यह अधिकार बहुत विस्तृत है क्योंकि यह व्यक्ति के जीवन निर्वहन से सम्बंधित है। इस पर राज्य उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है जैसे-किसी भी प्रकार का अनैतिक कृत्य
- किसी भी व्यक्ति को किसी अपराध हेतु एक ही बार सजा का प्रावधान है।
- किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध न्यायालय में गवाही देने हेतु वाध्य नहीं किया जाएगा।
- किसी भी व्यक्ति को उसके अपराधों हेतु वर्तमान में प्रचलित कानून के हिसाब से दण्डित किया जायेगा न कि घटना के पूर्ववर्ती और परवर्ती कानूनों द्वारा।
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विधि सम्मत प्रक्रिया के अनुसार ही किसी व्यक्ति को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित किया जायेगा। 1950 के प्रसिद्द गोपालन वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा की इस अधिकार को राज्य क़ानूनी आधार पर ही रोक सकता है। हालांकि १९७८ का मेनका गाँधी वाद में उच्चतम न्यायालय ने गोपालन वाद में दिए फैसले को पलट दिया। इस निर्णय के अनुसार प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को उचित और न्यायपूर्ण मामले के आधार पर रोका जा सकता है। मेनका गांधी वाद में न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अन्य भाग के रूप में निम्नवत अधिकारों को घोषित किया।
- जीवन रक्षा का अधिकार
- निजता का अधिकार
- स्वास्थ्य का अधिकार
- सूचना का अधिकार
- विदेश यात्रा करने का अधिकार
- महिलाओं के साथ आदरपूर्वक और सम्मान पूर्वक व्यवहार करने का अधिकार
- स्वच्छ पर्यावरण प्राप्त करने का अधिकार
- सोने का अधिकार
- अपनी सहमति/मर्जी के अनुसार शादी करने का अधिकार
- मानवीय प्रतिष्ठा और अस्मिता के साथ जीवन जीने का अधिकार आदि।
86 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के अंतर्गत अनुच्छेद 21 (A) का समावेश किया गया जिसमे स्पष्ट रूप से कहा गया कि राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों को निशुल्क प्राथमिक एवं अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराएगा।
यद्यपि 1993 के अपने एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने प्राथमिक शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार में जोड़ा था।
किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से हिरासत में लेने पर उसको तीन प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है।
- आने जाने के समय को छोड़कर 24 घंटे के अन्दर उसे दंडाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा।
- उस व्यक्ति को अपना मनपसंद वकील चयन करने की आजादी होगी।
- हिरासत में लेने का कारण बताना होगा।
संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड 3,4,5 और 6 में इसके संबंध में उपबंध किया गया है। इस क़ानून के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। यह पूर्व सूचना और कुछ अनुमानों के आधार पर किया जाता है। इस विधि का उदेश्य दंड देना ही अपितु व्यक्ति को अपराध करने से रोकना है। इसका मुख्य उद्देश्य राज्य की लोक व्यवस्था,सुरक्षा आदि जैसे महत्वपूर्ण आयामों को सरक्षित करने के उद्देश्य से किया जाता है।
- निवारक निरोध विधि के अनुसार किसी भी अभियुक्त को अधिकतम 3 माह तक ही बंदी बनाया जा सकता है।
- अभियुक्त व्यक्ति को निरोध आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने हेतु अवसर दिया जायेगा।
- निवारक निरोध अधिनियम 1950
- आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम 1971 (मीसा)
- विदेशी मुद्रा सरंक्षण और तस्करी निरोध अधिनियम,1974
- राष्ट्रीय सुरक्षा कानून,1980
- आतंकवादी एवं विध्वंसकारी गतिविधि निरोधक कानून (टाडा)
- पोटो (Prevention of Terrorism Ordinance 2001)
शोषण के विरुद्ध अधिकार -
इसके द्वारा किसी व्यक्ति की खरीद फरोख्त,बेगारी तथा इसी समकक्ष अन्य जबरदस्ती श्रम निषिद्ध है जिसका उल्लंघन विधि अनुसार दंडनीय अपराध है। यह अधिकार नागरिक और गैर नागरिक दोनों दोनों हेतु उपलब्ध होगा।
यह अनुच्छेद किसी व्यक्ति विशेष को राज्य और अन्य व्यक्तियों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। यद्यपि जरूरत की स्थिति में राष्ट्र सेवा करने हेतु श्रम हेतु बाध्य किया जा सकता है। उदाहरण के लिए सैन्य सेवा एवं सामजिक सेवा
इस अनुच्छेद के अनुसार किसी खान,फैक्ट्री और अन्य संकटमय गतिविधि से सम्बद्ध कार्यों जैसे रेलवे आदि में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों का नियोजन पूर्णत: प्रतिबंधित है। बालश्रम (प्रतिषेध और नियमन) अधिनियम 1986 इसको लागू करने में अहम् भूमिका निभाता है।
अगस्त 2012 में भारत सरकार ने इसके सन्दर्भ में 14 वर्ष के कम आयु के बच्चों को हर प्रकार के व्यवसायों और प्रक्रियाओं में रोजगार देने पर पूर्णत: प्रतिबन्ध लगा दिया।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार -
इसके अनुसार सभी व्यक्तियों को अपने ढंग से किसी भी ईश्वर की पूजा और उसमे आस्था,तथा आस्था को सार्वजनिक करके और उसके निमित्त प्रचार और प्रसार करने की स्वतंत्रता होगी। यह अधिकार नागरिक और गैर नागरिक दोनों हेतु उपलब्ध है। यह अनुच्छेद व्यक्तिगत अधिकारों को गारंटी देता है।
अनुच्छेद 25 में दो व्याख्याएं स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं पहला सिख धर्म के अंतर्गत कृपाण धारण करना और उसको लेकर चलना इस धर्म का अंग समझा जायेगा; दूसरा इस सन्दर्भ में हिन्दुवों के अंतर्गत सिख,जैन और बौद्ध सम्मिलित हैं।
यह अनुच्छेद व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्था निर्माण,पोषण,विधिसम्मत संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व तथा प्रशासन का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 26 सार्वजनिक व्यवस्था,नैतिकता और स्वास्थ्य सम्बन्धी अधिकार देता है। यह अनुच्छेद धार्मिक सम्प्रदाय तथा इसके अनुभागों को अधिकार देता है। यह सामूहिक धार्मिक रूप से अधिकारों की रक्षा करता है।
राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसा किसी भी प्रकार का कर या चंदा देने को बाध्य नहीं कर सकता जिसका प्रयोग किसी विशेष धर्म की अभिवृद्धि व पोषण हेतु किया जा रहा हो। यह व्यवस्था राज्य को किसी धर्म का दूसरे के मुकाबले पक्ष लेनें से रोकता है।
इसके अनुसार राज्य द्वारा पूर्ण रूप से वित्त पोषित संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है साथ ही ऐसे शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने में या धर्मोपदेश को सुनने के लिए बाध्य नही कर सकते हैं। हालाँकि यह व्यवस्था उन सस्थाओं पर लागू नहीं होती जिनका प्रशासन तो राज्य कर रहा हो परन्तु उसकी स्थापना किसी विन्यास/न्यास के अधीन हुई हो। अनुच्छेद 28 चार प्रकार के शैक्षणिक संस्थाओं में विभेद करता है -
- ऐसे संस्थान जिनका प्रशासन राज्य करता है परन्तु स्थापना किसी न्यास के तहत हुआ हो।
- राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थान।
- ऐसे संस्थान जो राज्य द्वारा वित्त सहायता प्राप्त कर रहे हों।
- ऐसे संस्थान जिसका रखरखाव पूर्ण रूप से राज्य करता है।
अल्पसंख्यक वर्गों को अपने भाषा,लिपि और संस्कृति को सरंक्षित करने का अधिकार मिला है। अल्पसंख्यकों को केवल उनके भाषा,धर्म,जाति और संस्कृति के आधार पर किसी भी सरकारी संस्था में प्रवेश से वंचित नहीं किया जायेगा।
हालाँकि भारतीय संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। बाद में सरकारों ने 6 समुदायों जैसे मुस्लिम,सिख,ईसाई,बौद्ध,पारसी तथा जैन को अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा प्रदान किया है। वर्ष २००५ में तत्कालीन केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यकों के विकास हेतु प्रधानमंत्री का 20 सूत्रीय कार्यक्रम प्रारम्भ किया।
अल्पसंख्यको को अपने मनपसंद का शैक्षणिक संस्थान चलाने और उस पर प्रशासन करने का अधिकार है। सरकार उन्हें अनुदान देने में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी।
अनुच्छेद-32 संवैधानिक उपचारों का अधिकार
मूल अधिकारों का क्रियान्वयन और आनंद तब तक अर्थहीन,तर्कहीन और अप्रासंगिक लगता है जब तक कि कोई प्रभावी क्रियात्मक ईकाई कार्यकारी न हो। इस संबंध में अनुच्छेद 32 मूल अधिकारों को सरंक्षण प्रदान करता है तथा उसको संवर्धित करने में सहायता देता है। डा. भीमराव अम्बेडकर ने अनुच्छेद 32 के संबंध में कहा कि यह एक ऐसा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान अर्थ विहीन है,यह संविधान की आत्मा और ह्रदय है।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 32 भारतीय संविधान की एक मूलभूत विशेषता है। इसको संविधान संशोधन के माध्यम से नहीं बदला जा सकता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत मूल अधिकारों को लागु करवाने हेतु कुछ समुचित कार्यवाही द्वारा उच्चतम न्यायालय में आवेदन का अधिकार दिया गया है। इस सन्दर्भ में 5 प्रकार के रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है।
1) बंदी प्रत्यक्षीकरण (habeas corpus)-
यह रिट किसी व्यक्ति को जबरन बंदी/हिरासत में रखने के विरुद्ध जारी किया जाता है। यह न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति के संबंध में जारी आदेश है जिसको कि दूसरे द्वारा हिरासत में रखा गया है। यह रिट व्यक्तिगत के साथ साथ सार्वजनिक प्राधिकरण के विरुद्ध भी जारी की जा सकती है। यह रिट तब जारी नहीं की जा सकती
- न्यायालय के द्वारा हुई हो।
- विधानमंडल/न्यायालय के अवमानना के तहत हुई हो।
- हिरासत न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र से बाहर हुई हो।
- जब हिरासत विधि सम्मत हो।
2)परमादेश (mandamus)-
इसका शाब्दिक अर्थ है 'हम आदेश देते' हैं। परमादेश एक नियंत्रण है जिसे केवल सरकारी अधिकारी के खिलाफ ही जारी किया जाता है। यह मूलतः तब जारी किया जाता है जब कोई पदाधिकारी अपने कर्तव्यो का ठीक से निर्वहन न कर रहा हो।इस आदेश में अधिकारी को उसके कर्तव्यों का न्यायसंगत और उचित रूप से प्रयोग करने हेतु कहा जाता है।
3)प्रतिषेध-लेख (prohibition)-
यह रिट सिर्फ न्यायिक व अर्धन्यायिक प्राधिकरण के विरुद्ध जारी किया जाता है। यह मूल रूप उच्च न्यायालयों द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों को उनके न्यायिक क्षेत्र से ऊपर कार्यों को करने से रोकने हेतु जारी किया जाता है।
4)उत्प्रेषण (certiorari)-
इसका अर्थ होता है प्रमाणित होना अथवा सूचना देना। इसके द्वारा उच्च न्यायालय अधीनस्थ को यह निर्देश देता है कि कि वे अपने पास लंबित मुकदमों को निर्णित करने हेतु अपने वरिष्ठ न्यायालय को भेजे।
5)अधिकार-पृच्छा (quo-warranto)-
मूल अधिकारों में संशोधन (Amendment Of The Fundamental Rights)-
- मौलिक अधिकारों में किसी भी तरह के परिवर्तन के लिए एक संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होती है जिसे संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाना चाहिए। संविधान संशोधन विधेयक को संसद के विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिए।
- संविधान के अनुच्छेद 13(2) में कहा गया है कि संसद द्वारा ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जा सकता है जो मौलिक अधिकारों का हनन करता हो अथवा छीनता हो।
- 1965 के सज्जन सिंह वाद में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है।
- वर्ष 1967 में, सर्वोच्च न्यायालय ने पहले दिए गए अपने फैसले को पलट दिया जब गोलकनाथ वाद मामले के फैसले में यह कहा गया कि मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है।
- 1973 में, केशवानंद भारती मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद मूल अधिकार सहित संविधान के अन्य प्रावधानों में संशोधन कर सकता है बशर्ते संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन न हो।
- 1981 में, सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना सिद्धांत को दोहराया।
ग्रहण का सिद्धांत (Doctrine Of Eclipse)-
यह सिद्धांत बताता है कि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई भी कानून शुरू से ही शून्य या शून्य नहीं है, बल्कि केवल गैर-प्रवर्तनीय है, यानी यह मृत नहीं है बल्कि निष्क्रिय है। इसका तात्पर्य यह है कि जब भी उस मौलिक अधिकार (जिसका कानून द्वारा उल्लंघन किया गया था) को हटा दिया जाता है, तो कानून फिर से सक्रिय हो जाता है (पुनर्जीवित हो जाता है)।
ग्रहण का सिद्धांत केवल पूर्व-संवैधानिक कानूनों (ऐसे कानून जो संविधान के लागू होने से पहले बनाए गए थे) पर लागू होता है, न कि बाद के संवैधानिक कानूनों पर। इसका मतलब यह है कि कोई भी पोस्ट-संवैधानिक कानून जो मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, वह शुरू से ही शून्य है।
गंभीरता का सिद्धांत (Doctrine of Severability)-
यह सिद्धांत संविधान में निहित मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। इसे पृथक्करणीयता का सिद्धांत भी कहा जाता है।
इसका उल्लेख अनुच्छेद 13 में किया गया है, जिसके अनुसार संविधान के प्रारंभ से पहले भारत में लागू किए गए सभी कानून, मौलिक अधिकारों के प्रावधानों के साथ असंगत उस असंगति की सीमा तक शून्य होंगे। इसका तात्पर्य यह है कि क़ानून के केवल वे हिस्से जो असंगत हैं, उन्हें शून्य माना जाएगा, न कि पूरे भाग को। केवल वे प्रावधान जो मौलिक अधिकारों से असंगत हैं, शून्य होंगे।
केवल भारतीय नागरिकों हेतु उपलब्ध मूल अधिकार (Fundamental Rights Available Only to Indian Citizens)-
- नस्ल, धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15)
- सार्वजनिक रोजगार के मामलों में अवसर की समानता (अनुच्छेद 16)
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 19)
- अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा और लिपि का संरक्षण (अनुच्छेद 29)
- शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यकों का अधिकार (अनुच्छेद 30)
5 प्रकार के रीट,फंडामेंटल राइट्स इन हिंदी के द्वारा आपने उत्तर प्रदेश की प्रमुखतम झीलों के बारे में जान लिया होगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश से सम्बद्ध झीलों से सम्बंधित प्रश्नों को आप बड़ी सहजता से हल कर पायेंगे। आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल आपके लिए बेहतर साबित होगा। इसको आप अपने अन्य साथियों के साथ भी साझा कर सकते हैं। धन्यवाद सहित
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