Saturday, September 2, 2023

दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध और बेहतरीन गजलें,और शायरी | Dushyant Kumar Poetry in Hindi

दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध और बेहतरीन गजलें,कविताएं और शायरी

दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में  27 सितंबर 1931 को हुआ था। इनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। वास्तविक जीवन में दुष्यंत बहुत ही सहज, सरल और मनमौजी व्यक्ति थे।

दुष्यंत कुमार हिंदी कवि एवं प्रसिद्ध गजलकार थे। भारत के महान गजलकारों में उनका नाम सर्वश्रेष्ठ है। हिंदी गजलकार के रूप में जो लोकप्रियता दुष्यंत कुमार को मिली वो दशकों में शायद ही किसी को मिली हो। वह एक कालजयी कवि थे और ऐसे कवि समय काल मे परिवर्तन होने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं। इनकी कविता एवं गज़ल के स्वर आज तक संसद से सड़क,गली मोहल्ले,विश्वविद्यालयों आदि तक में गूंजते है। 

तो आइये इस आर्टिकल दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध और प्रेरणादायक कविताएँ  | dushyant kumar motivational lines and poem के माध्यम से हम उनकी कालजयी रचनाओं का पठन करते हैं -

हो गई है पीर पर्वत (Ho Gayi Hai Peer Parvat)

हो गई है पीर पर्वत

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी

शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।।


हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही,

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।।

‎कहाँ तो तय था चरागा हर एक घर के लिये (kahaan to tay tha charaaga har ek ghar ke liye)

‎कहाँ तो तय था चरागा हर एक घर के लिये

कहाँ तो तय था चरागा हर एक घर के लिये,

कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिये।

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,

चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये।।


न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे,

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिये।

खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही,

कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिये।।


वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,

मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिये।

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,

मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिये।।

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं (pak gaee hain aadaten baaton se sar hongee nahin)

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं,

कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं।

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो,

धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं।।


बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो-बारिश और है,

ऐसी बारिश की कभी उनको खबर होगी नहीं।

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है,

पत्थरों में चीख हर्गिज कारगर होगी नहीं।।


आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर,

आपकी ताजीम में कोई कसर होगी नहीं।

सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत,

हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं।।

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मापदण्ड बदलो (maapadand badalo)

मापदण्ड बदलो

मेरी प्रगति या अगति का यह मापदण्ड बदलो तुम,

जुए के पत्ते सा मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,कोपलें उग रही हैं, पत्तियाँ झड़ रही हैं,

मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ, लड़ता हुआ

नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।।


अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं, मेरे बाजू टूट गए,

मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,

या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं, तो मुझे पराजित मत मानना,

समझना तब और भी बड़े पैमाने पर, मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,

मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ,एक बार और शक्ति आज़माने को

धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को, मचल रही होंगी ।

एक और अवसर की प्रतीक्षा में, मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।।


ये जो फफोले तलुओं मे  रहे हैं,ये मुझको उकसाते हैं,

पिण्डलियों की उभरी हुई नसें,मुझ पर व्यंग्य करती हैं,

मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ,क़सम देती हैं,

कुछ हो अब, तय है,मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,

पत्थरों के सीने में प्रतिध्वनि जगाते हुए,परिचित उन राहों में एक बार

विजय-गीत गाते हुए जाना है,जिनमें मैं हार चुका हूँ ।।


मेरी प्रगति या अगति का,यह मापदण्ड बदलो तुम

मैं अभी अनिश्चित हूँ ।।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है (is nadee kee dhaar mein thandee hava aatee to hai)

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,

नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ ऐ दोस्तों,

इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।।


एक खंडहर के हृदय सी, एक जंगली फूल सी,

आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,

यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।।


निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,

पत्थरों से, ओट में जा जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,

और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।।

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तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं (tumhaare paanv ke neeche koee zameen nahin)

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मी नहीं,

कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ी नहीं।

मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ?

मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं।।


तेरी ज़ुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह,

तू एक जलील सी गाली से बेहतरीन नहीं।

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ,

अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं।।


तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर,

तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं।

बहुत मशहूर है आएँ जरूर आप यहाँ,

ये मुल्क देखने लायक तो है हसीन नहीं।।


जरा सा तौर तरीकों में हेरफेर करो,

तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं।

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ (main jise odhata bichhaata hoon)

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ,

वो गजल आपको सुनाता हूँ।

एक जंगल है तेरी आँखों में,

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।।


तू किसी रेल सी गुजरती है,

मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।

हर तरफ ऐतराज होता है,

मैं अगर रौशनी में आता हूँ।।


एक बाजू उखड़ गया जबसे,

और ज़्यादा वजन उठाता हूँ।

मैं तुझे भूलने की कोशिश में,

आज कितने करीब पाता हूँ।।


कौन ये फासला निभाएगा,

मैं फरिश्ता हूँ सच बताता हूँ।

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे (mere geet tumhaare paas sahaara paane aaenge)

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे,

मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे।

हौले हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत,

हम सब अपने अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे।।


थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो,

कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे।

उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती,

वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आएँगे।।


रह रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी,

आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे।

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता,

हम घर में भटके हैं कैसे ठौर ठिकाने आएँगे।।


हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए,

इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे।

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सूना घर (Soona Ghar)

सूना घर

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को,

पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर।

अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर,

खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।


पर कोई आया गया न कोई बोला,

खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला

आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।


फिर घर की खामोशी भर आई मन में

चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में

उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।


पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं,

कमरे के कोने पास खिसक आए हैं,

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

नजर नवाज नजारा बदल न जाए कहीं (najar navaaj najaara badal na jae kaheen)

नजर नवाज नजारा बदल न जाए कहीं

नजर नवाज नजारा बदल न जाए कहीं,

जरा सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं।

वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है,

मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं।


यों मुझको खुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन,

ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं।

चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना,

ये गरम राख शरारों में ढल न जाए कहीं।


तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है,

तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं।

कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी,

कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं।

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये  (phir kar lene do pyaar priye)

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

अब अंतर में अवसाद नहीं,

चापल्य नहीं उन्माद नहीं।

सूना सूना सा जीवन है,

कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं।


तव स्वागत हित हिलता रहता,

अंतरवीणा का तार प्रिये।

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी,

आशाएं मुझसे छूट चुकी।


सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ,

मेरे हाथों से टूट चुकी।

खो बैठा अपने हाथों ही,

मैं अपना कोष अपार प्रिये,

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये।

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प्रेरणास्रोत शायरी,दुष्यंत कुमार के शेर | Dushyant Kumar Motivational Shayari,Poem and Quotes In Hindi

अपनी प्रेमिका से (apanee premika se)

अपनी प्रेमिका से

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी,जो तुम्हें शीत देतीं

और मुझे जलाती हैं,किन्तु

इन हवाओं को यह पता नहीं है

मुझमें ज्वालामुखी है,तुममें शीत का हिमालय है।


फूटा हूँ अनेक बार मैं,पर तुम कभी नहीं पिघली हो,

अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं

पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं

तनी हुई,तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की

जो गर्म हो और मुझे उसकी जो ठण्डी हो 


फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति,जो दुखाती है

फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का

जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है

काश,इन हवाओं को यह सब पता होता।

यह क्यों (yah kyon)

यह क्यों

यह क्यों?

हर उभरी नस मलने का अभ्यास

रुक रुक कर चलने का अभ्यास

छाया में थमने की आदत

यह क्यों ?


जब देखो दिल में एक जलन

उल्टे उल्टे से चालचलन

सिर से पाँवों तक क्षत विक्षत

यह क्यों ?


जीवन के दर्शन पर दिनरात

पण्डित विद्वानो जैसी बात

लेकिन मूर्खों जैसी हरकत

यह क्यों ?

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है (mat kaho, aakaash mein kuhara ghana hai)

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।


सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,

क्या करोगे सूर्य का क्या देखना है?


इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,

हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।


पक्ष और प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,

बात इतनी है कि कोई पुल बना है।


रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,

आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।


हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,

शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।


दोस्तों,अब मंच पर सुविधा नहीं है,

आजकल नेपथ्य में संभावना है ।

तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा (tumako nihaarata hoon subah se ritambara)

तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा

तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा,

अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा।


खरगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब,

फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा।


पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है,

मेरी नजर में अब भी चमन है हरा भरा।


लम्बी सुरंगसे है तेरी ज़िन्दगी तो बोल,

मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा।


माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम,

गंगा कसम बताओ हमें कया है माजरा।

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