Saturday, September 2, 2023

Atal Bihari Vajpayee Poems | अटल बिहारी वाजपेयी कविताएँ

अटल बिहारी वाजपेयी कविताएँ

भारत रत्न पंडित अटल बिहारी वाजपेई(Atal Bihari Vajpeyi) भारत के एक ऐतिहासिक प्रधानमंत्री थे प्रधानमंत्री होने के पूर्व से ही उनमें कविता की विशेष रुचि थी  अपनी भाषा का व्याख्यान उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में अपने ओजस्वी भाषण से दिया था संसद में कहे गए उनके हर एक भाषण जिसमें की अप्रतिम अनुपम हिंदी भाषा की झलक दिखाई पड़ती हैं प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ वो एक बेहतर कवि भी थे।

राष्ट्रप्रेम ,प्रकृति,प्रेरणादायक आदि जैसे आयामों में अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने जिन शब्दों का उन्होंने बीजारोपण किया वो आज भी जीवंत है तो आइए उनके शानदार कविताओं का आनंद लेते हैं। (Poetry of Atal ji)

गीत नहीं गाता हूं (geet nhi gata hoon)

गीत नहीं गाता हूं
Geet nahi gata hun kavita

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं ।
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं ;
गीत नहीं गाता हूं ।।

लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर ।
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं ;
गीत नहीं गाता हूं ।।

पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद ।
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं ;
गीत नहीं गाता हूं ।।

गीत नया गाता हूं (Geet naya gata hoon)

गीत नया गाता हूं
geet naya gata hun kavita
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर ।
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात;
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं,
गीत नया गाता हूं ।।

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी,
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी ।
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा;
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं ।।

मौत से ठन गई (Maut se thhan gyi)

ठन गई 
मौत से ठन गई ।
जूझने का मेरा इरादा न था ;
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था ।
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।।

मौत की उम्र क्या ? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा ।।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बांसुरी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं;
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफां का, तेवरी तन गई।।
ठन गई,
मौत से ठन गई ।

आओ फिर से दीया जलाएं (Aao fir s diya jalaye)

आओ फिर से दीया जलाएं,
भरी दुपहरी में अंधियारा ;
सूरज परछाई से हारा ।
अंतरतम का नेह निचोड़ें,
बुझी हुई बाती सुलगाएं;
आओ फिर से दिया जलाएं ।।

हम पड़ाव को समझे मंज़िल,
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल ।
वर्तमान के मोह-जाल में;
आने वाला कल न भुलाएं ।
आओ फिर से दिया जलाएं ।।
आहुति बाक़ी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा ।
अंतिम जय का वज्र बनाने
नव दधीचि हड्डियां गलाएं;
आओ फिर से दिया जलाएं ।।

धरती को ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है (Dharti ko unche kad ke insano ki jaroorat hai)

धरती को ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना;
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।।

धरती को बौनों की नहीं, 
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है। 
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें;
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें ।।

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं;
कि पाँव तले दूब ही न जमे।
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।।

ऊँचे पहाड़ (unche pahaad)

ऊँचे पहाड़ पर ,पेड़ नहीं लगते ।
पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है।। 

जमती है सिर्फ बर्फ,जो,कफ़न की तरह सफ़ेद ।
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,जिसका रूप धारण कर।
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।।

ऐसी ऊँचाई, जिसका परस ।
पानी को पत्थर कर दे, 
ऐसी ऊँचाई ,जिसका दरस हीन भाव भर दे।।

अभिनंदन की अधिकारी है, आरोहियों के लिये आमंत्रण है। 
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं, केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती।।
किन्तु कोई गौरैया,वहाँ नीड़ नहीं बना सकती।
ना कोई थका-मांदा बटोही,उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।।

सच्चाई यह है कि 
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती;
सबसे अलग-थलग, परिवेश से पृथक 
अपनों से कटा-बँटा, शून्य में अकेला खड़ा होना 
पहाड़ की महानता नहीं; 
मजबूरी है।। 
ऊँचाई और गहराई में ,
आकाश-पाताल की दूरी है।।

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क्या खोया क्या पाया जग में (kya khoya kya paya jag me)

क्या खोया क्या पाया जग में, मिलते और बिछड़ते मग में ।
मुझे किसी से नहीं शिकायत, यद्यपि छला गया पग पग में।।
एक दृष्टि बीती पर डाले , यादों की पोटली टटोलें ।
अपने ही मन से कुछ बोले-अपने ही मन से कुछ बोले ।।  

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी, जीवन एक अनंत कहानी ।
पर तन की अपनी सीमाएं, यद्यपि सौ सर्दों की वाणी।।
इतना काफी है अंतिम दस्तक पर खुद दरवाज़ा खोले।
अपने ही मन से कुछ बोले।।

जन्म मरण का अविरत फेरा, जीवन बंजारों का डेरा ।
आज यहाँ कल वहाँ कूच है, कौन जानता किधर सवेरा।।
अँधियारा आकाश असीमित प्राणों के पंखों को खोलें।
अपने ही मन से कुछ बोले ।।

क्या खोया क्या पाया जग में, मिलते और बिछड़ते मग में।
मुझे किसी से नहीं शिकायत, यद्यपि छला गया पग पग में ।।
एक दृष्टि बीती पर डाले  यादों की पोटली टटोलें। 
अपने ही मन से कुछ बोले-अपने ही मन से कुछ बोले।।

जीवन बीत चला (jeevan beet chala )

कल कल करते आज हाथ से निकले
सारे भूत भविष्य की चिंता में वर्तमान की बाज़ी हारे 
पहरा कोई काम न आया रसघट रीत चला
जीवन बीत चला

हानि लाभ के पलड़ों में तुलता जीवन व्यापार हो गया
मोल लगा बिकने वाले का बिना बिका बेकार हो गया
मुझे हाट में छोड़ अकेला एक एक कर मीत चला
जीवन बीत चला दूर कहीं कोई रोता है…  

तन पर पहरा भटक रहा मन, साथी है केवल सूनापन
बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का, क्रंदन सदा करूण होता है
जन्म दिवस पर हम इठलाते, क्यों ना मरण त्यौहार मनाते
अन्तिम यात्रा के अवसर पर, आँसू का अशकुन होता है । 
अंतर रोयें आँख ना रोयें, धुल जायेंगे स्वप्न संजोये,
 छलना भरे विश्व में केवल, सपना ही तो सच होता है ।

पंद्रह अगस्त की पुकार (Pandrah august ki pukar)

पंद्रह अगस्त का दिन कहता, आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है ।।
जिनकी लाशों पर पग धर कर आज़ादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई ।।

कलकत्ते के फुटपाथों पर जो, आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं।।
हिंदू के नाते उनका दु:ख सुनते ,यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो ,सभ्यता जहाँ कुचली जाती।।

इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियां भरता है, डालर मन में मुस्काता है।।
भूखों को गोली नंगों को ,हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं ।।

लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की, है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन गुलामी का साया।।
बस इसीलिए तो कहता हूं, आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं ,थोड़े दिन की मजबूरी है।।

दिन दूर नहीं खंडित भारत को, पुन: अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक, आज़ादी पर्व मनाएंगे।।
उस स्वर्ण दिवस के लिए ,आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं जो खोया उसका ध्यान करें।।


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